- sangyanmcu
- Jun 5, 2021
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प्राकृितक संपदाओं से धन्य बुंदेलखंड में पिछले दो दशकों में 13 बार सूखा पड़ चुका है और भूमिगत जलस्तर गर्त में पहुंच चुका है

अभिषेक दुबे . रीवा (मप्र) mobile#7987008303
प्रत्येक वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष पर्यावरण दिवस का विषय पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2021-30 के दशक को पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली पर यूएन दशक घोषित किया है। इसका विजन दशक के लिए ऐसे विश्व का निर्माण करना है, जहां वर्तमान एवं भविष्य में पृथ्वी के सभी जीवों के स्वास्थ्य और कल्याण हेतु मनुष्यों और प्रकृति के बीच संबंधों को बहाल करना तथा स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र के क्षेत्र में वृद्धि करना, पर्यावरण के नुकसान व गिरावट में कमी लाना है। यह तभी संभव है जब इसके लिए स्थानीय स्तर पर स्थानीय लोगों, महिलाओं, युवाओं के समूहों तथा नागरिक समाज से व्यापक स्तर पर परामर्श किया जाएगा तथा पारिस्थितिकी तंत्र में पुनर्बहाली प्रयासों को जमीनी स्तर पर तैयार करके लागू किया जाएगा।
प्रकृति से छेड़छाड़ की वजह से ही हम बाढ़, सूखा, भुखमरी, गरीबी एवं गंभीर बीमारियों से ग्रसित होते जा रहे हैं। जहां पुराने समय में लोग जल, जंगल और जमीन की सुरक्षा करते थे तो आर्थिक, सामाजिक रूप से सुदृढ़ एवं बीमारियों से रहित होते थे। वहीं, वर्तमान समय में हम जिस प्रकार से पढ़े-लिखे शिक्षित होकर अशिक्षित की भांति प्रकृति का दोहन कर रहे हैं, उसी का नतीजा है कि हम अनेकों गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो रहे हैं। साथ ही आर्थिक रूप से भी कमजोर होते जा रहे हैं। यदि हम जल-जंगल-जमीन की रक्षा करेंगे तभी हम सुरक्षित हो सकेंगे। आइए, हम संकल्प लें कि प्रकृति का नुकसान नहीं करेंगे और पौधरोपण अवश्य करेंगे।
विंध्य क्षेत्र में बघेल खंड एवं बुंदेलखंड के 11 जिले आते हैं, जिनमें रीवा, सीधी, सतना, शहडोल, अनूपपुर, सिंगरौली, पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया और उमरिया शामिल हैं। यह क्षेत्र प्राकृतिक रूप से अत्यंत मनमोहक है। विंध्य क्षेत्र में तीन नेशनल पार्क, पन्ना छतरपुर में पन्ना नेशनल पार्क है तो सीधी में संजय डुबरी राष्ट्रीय उद्यान है। वहीं, उमरिया में बांधवगढ़ नेशनल पार्क, सीधी जिले में ही सोन घड़ियाल अभ्यारण्य है तो वहीं काले मृगों का संरक्षण करने के लिए बगदरा अभ्यारण्य भी बनाया गया है। रीवा-सतना में स्थित मुकुंदपुर में चिड़ियाघर और व्हाइट टाइगर सफारी भी स्थित है। विंध्य क्षेत्र के जंगलों में से रीवा-सतना के चित्रकूट, मझगंवा, ककरेड़ी, गोविंदगढ़ एवं अतरैला क्षेत्र के जंगलों का अपना महत्व है। देश के मैदानी क्षेत्रों में पाए जाने वाले जंगल या तो साल प्रभावी होते हैं या सागौन प्रभावी, लेकिन विंध्य के उपरोक्त क्षेत्रों में पाए जाने वाले जंगल न तो साल प्रभावी हैं और न ही सागौन प्रभावी। विंध्य क्षेत्र भौगोलिक रूप से अत्यंत ही खूबसूरत है। अमरकंटक में अचानकमार बायोस्फियर रिजर्व स्थपित है। देश का शायद ही ऐसा कोई भूखंड होगा जहां इस प्रकार वन्यजीवों से भरापूरा स्थान होगा। विंध्य के तीनों नेशनल पार्क, अभ्यारण्य एवं बायोस्फियर रिजर्व आपस में कॉरिडोर से जुड़े होने के कारण वन्यजीवों की प्रचुरता को बढ़ाते हैं। नदियों की बात करें तो यहां अनूपपुर के अमरकंटक से ही देश की दूसरी सबसे बड़ी नर्मदा नदी निकलती है। वहीं, सीधी में सोन नदी, गोपद-बनास, रीवा की बिछिया, बीहड़ नदी, टोंस या तामस नदी सहित अन्य प्रमुख नदियां हैं। इसके अलावा रीवा का बहुती जलप्रपात, चचाई, पुरवा, क्योंटी जलप्रपात का अपना अलग ही महत्व है।
प्राकृतिक सौंदर्य को हो रहा भारी नुकसान
विंध्य क्षेत्र प्राकृतिक सौंदर्यता से पूर्ण हैं। यहां के जंगलों, नदियों एवं मिट्टी का अपना अलग महत्व है लेकिन कहीं न कहीं प्रशासनिक अधिकारियों के कागजी औपचारिकता पूरा करने एवं हमारी गैरजिम्मेदारी से इनका क्षरण हो रहा है। प्रत्येक वर्ष केवल लाखों पौधों का रोपण केवल कागजों में कर दिया जाता है। रीवा जिले में पिछले वित्तीय वर्ष में 7 लाख पौधारोपण का लक्ष्य वन विभाग को मिला लेकिन 1 लाख पौधे भी जीवित नहीं रह सके। इसी प्रकार नदियों से रेत का खनन भी निरंतर जारी है। इससे नदियों का क्षरण भी हो रहा है। शहरी क्षेत्रों में शहर सरकार एवं ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण सरकार प्रत्येक वर्ष लाखों रुपए कागजों पर पौधारोपण एवं इनके रख-रखाव में खर्च कर देते हैं। यदि यह सब जिम्मेदारी के साथ प्रकृति एवं पर्यावरण को सहेजने का प्रयास करें, तो प्राकृतिक वातावरण को स्वच्छ बनाए रखा जा सकता है।
नदियों के किनारे अवैध अतिक्रमण
नदी किनारे तटों पर अवैध अतिक्रमण एवं लगातार बनने वाले अवैध भवनों के वजह से बाढ़ का खतरा बना रहता है। रीवा के बीहड़ और बिछिया नदी के तटों पर अवैध कब्जे की वजह से अत्यधिक बारिश होने पर बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। रीवा शहर मुख्यालय में झिरिया नदी में इस कदर अतिक्रमण किया गया कि देखते ही देखते कुछ वर्षों में यह नदी नाले का रूप धारण कर चुकी है।
फोरलेन के लिए काटे वृक्ष, पौधरोपण नहीं
नेशनल हाईवे सड़क मार्ग रीवा-हनुमना, मनगवां-चाकघाट एवं रीवा-सतना तथा रीवा-सिरमौर फोरलेन सड़क निर्माण किया गया। इस दौरान मप्र सड़क विकास निगम एवं लोक निर्माण विभाग, राष्ट्रीय राजमार्ग के रीवा संभाग तथा सड़क निर्माण कंपनियों एवं पौधारोपण के लिए अधिकृत कंपनियों द्वारा सड़क के दोनों तरफ लगे 100 से 150 वर्ष पुराने वन विभाग द्वारा रोपित फलदार एवं इमारती वृक्षों को काट दिया गया। जबकि अनुबंध के तहत पौधे नहीं लगाए गए। सड़क के दोनों तरफ लगे हुए आम, शीशम, लिप्टस, जामुन, बबूल, मेगूर, नीम, पीपल, गुलमोहर, नीलगिरी, कचनार, सेमरा, कदम, बेल, शो-बबूल, अमरुद, बरगद, पीपल, महुआ, उमर, कैथा, इमली, करंज, केरा, किजी, गुरार, सिरसा, आमला, इमली, कटहल आदि वृक्ष जिनकी संख्या रीवा हनुमाना के बीच 3582, मनगवां से चाकघाट के बीच 2530 एवं रीवा-सिरमौर मार्ग के बीच 670 तथा रीवा-सतना मार्ग के बीच सीताराम पेट्रोल पंप से कृपालपुर गेट तक जहां कुछ ही किलोमीटर की जानकारी दी गई। वहीं, हजारों वृक्षों की जानकारी नहीं दी गई जिनकी संख्या 263 है। यानी कुल काटे गए वृक्षों की संख्या 7045 है। मप्र सड़क निगम एवं लोक निर्माण विभाग ने उक्त कार्य का ठेका इंदौर की विंध्य एक्सप्रेस-वे कंपनी एवं दिलीप बिल्डकॉन कंपनी सहित अन्य कंपनियों को दिया था। वृक्षों को काटने एवं पौधारोपण के संबंध में कलेक्टर रीवा एवं कलेक्टर सतना से विभागों का जो अनुबंध था उसमें स्पष्ट रूप से यह शर्तें रखी गई थी कि काटे गए वृक्षों के स्थान पर उसी प्रजाति के दस गुना पौधे लगाए जाएंगे। यदि लगाए गए पौधे सूख जाते हैं या नष्ट हो जाते हैं तो उस स्थिति में पुनः पौधारोपण किया जाएगा। साथ ही लगाए गए पौधों को ट्री गार्ड एवं तार-फेंसिंग कर सुरक्षित किया जाएगा। वहीं, पांच वर्ष वृक्ष बनने तक परवरिश व देखरेख की जाएगी। काटे गए वृक्षों की लकड़ी का वन विभाग से मूल्यांकन कराकर क्षेत्रीय तहसीलदार के माध्यम से नीलामी की कार्रवाई कर राशि भू-राजस्व के मद में जमा कराई जाएगी। इस प्रकार काटे गए वृक्षों के बदले कुल दस गुना यानी 70450 पौधे शर्त मुताबिक लगाने थे, जो नहीं लगाए गए। इसके एवज में कंपनियों ने कनेल के पौधे रोपित किये हैं।
अवैध कालोनियों से भी हो रहा क्षरण
वैसे तो हमारे संविधान में अनेकों नियम और कानून बनाए गए हैं लेकिन इनका पालन कराने वाले विभाग के आला अफसर केवल कागजी औपचारिकताएं पूरी करते हैं। देश-प्रदेश का ऐसा कोई शहर नहीं है जहां अवैध कॉलोनियों का निर्माण न हो। भू-माफियाओ द्वारा बगीचों और जंगलों तक को काटकर वहां प्लॉटिंग कर दी गई। जितने वृक्ष कटे उसके एवज में पौधारोपण नहीं हुआ। सकरी गलियों का निर्माण हो गया। शहरों में जगह नहीं बची, थोड़ी-थोड़ी जगह में कंक्रीट के मकान खड़े कर दिए गए। इससे शुद्ध हवा भी मिल पाना दूभर हो गया है। यदि शहरों में कॉलोनियों का निर्माण नियमानुसार हुआ होता तो शहरी क्षेत्र में भी शुद्ध हवा मिल पाती।
विलुप्त होते जा रहे तालाब-पोखर और कुंए
रीवा क्षेत्र में बरसात के मौसम में बरसने वाले जलमोतियों को थामने के लिए तालाब निर्माण काफी पुरानी परम्परा है। रीवा के पर्यावरण को लेकर एक अरसे से काम में जुटे डाॅ. मुकेश येंगल हमें बताते हैं कि यहां करीब-करीब 100 साल पहले जब रीवा की आबादी 4 लाख थी, तब तालाबों की संख्या 6 हजार के लगभग थी। आज जब आबादी 20 लाख है तो हमारे तालाबों की संख्या घटकर 2 हजार भी नहीं बची है।
रीवा रियासत के साथ तालाबों के इतिहास की कहानी आज से 800 साल पहले शुरू होती है। डाडोरी गाँंव का तालाब शिल्प और वहां पाए गए पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर चंदेलकालीन नजर आता है। बस, यहां से तालाब निर्माण का जो सिलसिला रीवा में शुरू हुआ तो फिर थमा नहीं।
इन तालाबों का अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि तत्कालीन समाज में तालाब निर्माण की तकनीक काफी उन्नत थी। जगह का चुनाव इस तरह से किया जाता था कि इन तालाबों में ज्यादा से ज्यादा पानी एकत्रित होता था और वर्षभर ये तालाब लबालब भरे रहते थे। प्राकृतिक रूप से बने आगोर के नीचे पाल बनाकर बरसात के बहने वाले पानी को रोक दिया जाता था। अतिरिक्त पानी को तालाब से निकालने के लिए वेस्टवियर भी बनाए जाते थे, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘उछाल’ कहा जाता था।
तालाब निर्माण को लेकर रीवा में कई लोककथाएं भी प्रचलित हैं। जैसे, रीवा से मात्र 30 किमी पूर्व में स्थित मनगवाँ गांव में बनाए गए मलकपुर या मलकावती तालाब के निर्माण को लेकर एक रोचक कथा ग्रामीणों ने हमें सुनाई। वो कथा हम भी आपको सुना रहे हैं..
एक राजा ऐसा रोगग्रस्त हुआ कि उसके जीवन की आस ही खत्म हो गई। जीवन से निराश राजा को रानी प्रयागराज ले जा रही थीं। रास्ते में मनगवां गांव के करीब एक बरगद के नीचे रात्रि विश्राम के लिए राजा और रानी रुके। अपने पति की बीमारी से चिन्तित रानी की आंखों में नींद नहीं थी। थोड़ी ही दूर पर एक सांप की बांबी थी, जिसमें से एक सर्प निकला और बोला कि ऐसा कोई नहीं है जो राजा को बता दे कि राई पीसकर मट्ठा के साथ काला नमक मिलाकर एक सप्ताह पिला दें तो उसके पेट का कछुआ मर जाए और राजा का रोग दूर हो जाए। सर्प की बात सुनकर पेट का कछुआ बोला कि ऐसा कोई नहीं है, जो एक कड़ाही तेल गर्म करके इस बांबी में छोड़ दे तो सर्प मर जाए और उसकी बांबी में छुपा खजाना प्राप्त कर ले। रानी ने सांप और कछुए दोनों की बात सुनी और सवेरे होते ही सर्प की बताई बात के अनुसार राजा का उपचार किया और राजा के स्वस्थ हो जाने के बाद सांप की बांबी से खजाना प्राप्त किया। छुपे खजाने को देखकर राजा ने सोचा कि उसे पुण्य के कार्य में ही लगाना चाहिए। खजाना तो चार दिन के ऐशो-आराम में खत्म हो जाएगा, लेकिन ‘पुण्य की जड़ पाताल में’ और राजा-रानी ने इस खजाने से पुण्य रोपा- और मलकपुर तालाब का निर्माण शुरू करवाया।
यह कथा कितनी सच्ची है और कितनी गलत- यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस प्रचलित मिथ से यह तो स्पष्ट है कि पुराने समय में पानी रोकना पुण्य का काम था और राजा-प्रजा सभी कोई भी तालाब बनाने की पुण्याई बंटोरने में पीछे नहीं रहा।
हालात बदले लेकिन हम पुण्याई को सहेज नहीं पाये। आज मलकपुर तालाब दुर्व्यवस्था का शिकार है। इस तालाब के आगोर क्षेत्र में दूरभाष का वर्कशॉप बन गया है। इसके बगल में आई.टी.आई. बन गया है। यानि विकास के नाम पर सीमेंट कॉन्क्रीट की इमारतें तो तन गईं और हमारे हाथ शेष रहा हथेलियों के बीच का शून्य। यानि मलकपुर तालाब के अवशेष मात्र। यहां यह बताना भी उचित होगा कि कभी मलकपुर तालाब गोविन्दगढ़ के बाद रीवा राज्य का दूसरा बड़ा तालाब हुआ करता था।
रीवा-सीधी मार्ग पर रीवा से लगभग 15 किमी. दूर है गोविन्दगढ़। रीवा जिले की इस रियासत की पहचान है यहाँं का तालाब। यहां का इतिहास है, गोविन्दगढ़ तालाब। रियासतें मिटी। राजे-रजवाड़े गुम हुए, लेकिन अक्षुण्ण और चिरस्थायी है तो 100 एकड़ क्षेत्र को अपने में समेटे यह विशाल तालाब। विश्वास नहीं होता कि किसी गांव या कस्बे की पहचान वहां की जल संरचना से हो सकती है। लेकिन, गोविन्दगढ़ पहुंचकर इस बात पर विश्वास करना ही पड़ता है। यहां के बाशिंदों को भी गर्व है उछाल मारते पानी से लबालब भरे इस तालाब पर, रीवा में जल संकट के दौर में यही गोविन्दगढ़ का तालाब रीवा की जीवन रेखा बन बहने लगता है- गोविन्दगढ़ से रीवा तक।
तकनीक और शिल्प की दृष्टि से यह तालाब काफी उन्नत है। इसका वेस्टवियर पक्का बनाया गया है। लेकिन वर्तमान में रख-रखाव के अभाव में यहां निर्मित हट में जगह-जगह दरार, सीलिंग की टूट-फूट स्पष्ट देखी जा सकती है। कमोबेश, यही स्थिति इस गोविन्दगढ़ तालाब की है। इसके पूर्वी और उत्तरी खामा में जलकुंभी बहुतायत से फैली है। पानी के बजाय इन खामा में जलकुंभी की हरी चादर बिछी दिखाई पड़ती है। बेशरम भी तालाब के किनारे बहुतायत से दिखाई पड़ती है, लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है।
रीवा राज्य में और भी कई बड़े तालाब हैं, लेकिन सभी की स्थिति एक-सी है। विकास की दौड़ में कई तालाब तो अब गुम ही हो चुके हैं। यही हालात जिले के लगभग हर पोखरों एवं कुओं के हैं। जहां पहले गांवों में प्रत्येक घरों में कुंए होते थे वहीं अब जमीन को चीरकर घर-घर मे हैंडपंप व बोरवेल उत्खनन करा दिए गए हैं। कुओं व बाबड़ियों की संख्या भी सीमित हो चुकी है, नदियां भी प्रदूषित एवं अतिक्रमित कर ली गई हैं। यही हालात रहे तो आने वाली पीढ़ी को कुएं, बाबड़ियां और पोखर केवल किताब के पन्नों में या ऐतिहासिक रूप में देखने को मिलेंगे। जिस प्रकार से हम आज गंभीर बीमारियों से ग्रसित होते जा रहे हैं उसके लिए आवश्यक है कि जब हम जल-जंगल और जमीन की रक्षा करेंगे तभी हम सुरक्षित रहेंगे। विश्व पर्यावरण दिवस पर हम विंध्यवासी प्रण करते हैं कि विंध्य की प्राकृतिक संसाधनों जल जंगल जमीन की रक्षा करेंगे और प्रत्येक व्यक्ति अपने पूरे जीवन एक पौधा अवश्य लगाएंगे और उसके वृक्ष बनने तक उसकी देखभाल करेंगे।
संजय दुबरी नेशनल पार्क
विंध्य क्षेत्र के सीधी जिले में स्थित संजय-दुबरी राष्ट्रीय उद्यान जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध है, जैव विविधता वन क्षेत्र को संरक्षित करने के लिए इसकी स्थापना 1975 में की गई। यह टाइगर रिजर्व क्षेत्र भी है। विश्व का पहला व्हाइट टाइगर मोहन इसी जंगल मे पाया गया था। सदाबहार साल वनों का यह क्षेत्र 152 पक्षी, 32 स्तनधारी, 11 सरीसृप, 3 उभयचर व 34 मत्स्य प्रजातियों समेत अनेक जीवों विशेषकर बाघों का आश्रयस्थल है। सफेद बाघों में सबसे प्रथम बाघ ‘मोहन’ यहीं पाया गया था। बाघों के साथ ही यहां स्लोथ भालू, चीतल, नीलगाय, चिंकारा, सांबर, तेंदुआ, धोल, जंगली बिल्ली, हाइना, साही, गीदड़, लोमड़ी, भेड़िया, पाइथन, चौसिंघा और बार्किंग डियर पाए जाते हैं। यह 831 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैला हुआ है। किंतु जंगलों की अंधाधुंध कटाई की वजह से ही इस क्षेत्र से कुछ समय के लिए सफेद बाघ गायब हो गए।
शेर वाला पन्ना नेशनल पार्क
विंध्य क्षेत्र के पन्ना-छतरपुर क्षेत्र में 209.53 वर्ग मील में फैला यह नेशनल पार्क शेरों के लिए प्रसिद्ध है। यदि आपको शेर देखना है तो पन्ना के जंगलों में शेर आसानी से देखने को मिल जाएंगे।
बांधवगढ़ नेशनल पार्क
विंध्य क्षेत्र के उमरिया जिले में स्थित बांधवगढ़ नेशनल पार्क 32 पहाड़ियों से घिरा हुआ है यहां बाघ आपको आसानी से दिख जाएंगे। इसे 1968 में राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया था। यह 448 वर्गकिलोमीटर में फैला हुआ है। पार्क में साल एवं बांस प्राकृतिक सुंदरता को बढ़ाते हैं।
सोन-घड़ियाल अभ्यारण्य
सोन घड़ियाल अभयारण्य प्रोजेक्ट क्रोकोडाइल के अंतर्गत घड़ियाल संरक्षण व जनसंख्या वृद्धि हेतु स्थापित किया गया। सोन नदी का 161 किमी, 23 किमी बनास नदी व 26 किमी गोपद नदी का क्षेत्र मिलाकर कुल 210 किमी क्षेत्र को 1981में अभयारण्य के रूप में घोषित किया गया। रेतीले पर्यावास (जैसे रेतीले तट, नदी द्वीप आदि) अनेक संकटग्रस्त जीवों जैसे घड़ियाल, भारतीय नर्म खोल कछुए (Chitra Indica), भारतीय स्किमर ( Rynchops albicollis) आदि हेतु प्रमुख आश्रय स्थान हैं। अभयारण्य में दर्ज लगभग 101 पक्षियों की प्रजातियां इसे जलीय व पक्षी जैव विविधता से भरपूर बनाती हैं।
केन और बगदरा अभ्यारण्य
विंध्य क्षेत्र के पन्ना-छतरपुर में स्थित केन अभ्यारण्य चारों तरफ से जंगलों से घिरा हुआ है यह केन और खुद्दाह नदी के मिलान का गवाह है। यह घड़ियालों के लिए संरक्षित क्षेत्र है, यहां घडियालों के अलावा और भी प्रकार के जीव व सरीसृप का प्राकृतिक घर है। इस सेंचुरी में 6 मीटर लम्बा मगरमच्छ भी है। वहीं, सोन नदी पर स्थित बगदरा अभ्यारण्य काले मृगों के लिए संरक्षित है।
भारत का एकमात्र जीवमंडल रिजर्व विंध्य के अमरकंटक में
विंध्य क्षेत्र के अनूपपुर जिले के अमरकंटक में अचानकमार अमरकंटक बायोस्फियर रिजर्व क्षेत्र है, जो भारत में एक मात्र जीवमंडल रिजर्व क्षेत्र है, इसका विस्तार मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य में हैं, यह 383551 हेक्टेयर में फैला हुआ है।
सफेद शेरों की धरती के रूप में जाना जाता है रीवा
विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी की गोद में फैले हुए विंध्य प्रदेश के मध्य भाग में बसा हुआ रीवा शहर जो मधुर गान से मुग्ध तथा बादशाह अकबर के नवरत्न जैसे – तानसेन एवं बीरबल जैसे महान विभूतियों की जन्मस्थली रही है। कलकल करती बीहर एवं बिछिया नदी के आंचल मेें बसा हुआ रीवा शहर बघेल वंश के शासकों की राजधानी के साथ-साथ विंध्य प्रदेश की भी राजधानी रही है। ऐतिहासिक प्रदेश रीवा विश्व जगत में सफेद शेरों की धरती के रूप में भी जाना जाता रहा है। रीवा शहर का नाम रेवा नदी के नाम पर पड़ा जो कि नर्मदा नदी का पौराणिक नाम कहलाता है।
भारत का 24वां और मप्र के सबसे ऊंचा वॉटरफॉल रीवा में
रीवा जिले में चार प्रपात है, बहुती, चचाई, पुरवा क्योंटी, इन चारों प्रपातों का अपना अलग महत्व है।बहुती जलप्रपात मध्यप्रदेश का सबसे ऊंचा झरना है,इसकी ऊंचाई 198 मीटर(650)फ़ीट है। वहीं चचाई मध्यप्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा झरना है। बीहड़ नदी पर स्थित इस जलप्रपात की ऊंचाई 130 मीटर से भी अधिक है। यह भारत मे सबसे अधिक एकल-बूंद वाले झरनों में गिना जाता है। क्योंटी जलप्रपात भारत का 24 वां सबसे ऊंचा झरना है। पुरवा वाटर फाल भी 67 मीटर ऊंचा है। ये चारों जलप्रपात वर्षा ऋतु में अत्यंत मनमोहक हो जाते हैं यहां काफी संख्या में लोग घूमने जाते हैं।